मानव शरीर मिट्टी से निर्मित किया गया एक ढांचा है जिसकी रूपरेखा उसके प्रारब्ध के संचित कर्मो एवं पृथ्वी पर आरोपित ग्रह एवं नक्षत्रीय ऊर्जा के अनुसार निरूपित होता है, जब मनुष्य के संचित कर्मो की स्थिति चलित ग्रहों एवं नक्षत्रो के समतुल्य हो जाता है तो वह आत्मीय ऊर्जा पुनर्जन्म के लिए अग्रसित हो जाता है, एवं अपने ऊर्जा क्षमता के समतुल्य गर्भ का स्मरण करते हुए नौ मास की असहनीय बेहद कठोर अनुष्ठान में प्रवेश करता है, एवं जब वह ऊर्जा मनुष्य के मिट्टी रूपी शरीर का शोषण करते हुए स्वयं को वायुमण्डल के अनुकूल प्राप्त कर लेता है तो अपनी ऊर्जा के आकर्षण बल के कारण वह गर्भ से बाहर वायुमंडल में प्रवेश करता है, यहां से शुरू होता है पुनः उसके प्रारब्ध एवं भविष्य के गुणों का मूल्यांकन ।
अब उस मनुष्य के शरीर को कुछ शक्तियां प्राप्त होती है जो उसके पूर्वकर्मों पर निर्भर करती है जिनमे दस ज्ञानेन्द्रियाँ भी सम्मिलित होती है, ये ज्ञानेन्द्रियाँ जितनी प्रबल होगी उतनी ही प्रबल जीव की आयु और मस्तिष्क से उत्सर्जित तरंगों की गति होगी।
ये वही तरंगों की प्रबलता होती है जिसे भगवद कथाओं में दिव्यदृष्टि कहा जाता रहा है, एवं मनुष्य का मस्तिष्क एक संगणक की भांति कार्य करता है जो सुप्त अवस्था मे जीवन में संचित किये गए समयकाल की चक्षुता को स्वप्न के रूप में प्रस्तुत करता है, यकीन करिए, मनन करिए, मनुष्य किसी भी उस घटना का स्वप्न नही देखता जिसे उसने अपने जीवनकाल में सुनी,देखी अथवा समझी न हो, मनुष्य के मस्तिष्क में एक बिंदु होता है जहां से तरंगों के गुजरने पर हमे तरंग रूपांतरण का वस्तुतः आभास होता है और हम वस्तु या घटना से परिचित हो जाते है, यही तरंगे जो घटना का अनुवाद मस्तिष्क तक प्रेषित करती है वास्तव में एक ऊर्जा के रूप में होती है, कुछ समयकाल के बाद ये ऊर्जा अनुकूल ज्ञानेन्द्रिय से सम्बंधित होकर मस्तिष्क में एक स्थान पर एकत्र हो जाती है । इसी प्रकार मनुष्य की सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ एक ऊर्जा समूह के रूप में शरीर मे विद्यमान रहती है एवं जिसकी प्रबलता मनुष्य के वीर्य तत्वों पर निर्भर करती है । जैसे दीपक का तेल बत्ती के सहारे ऊपर चढ़कर प्रकाश में परिणित होता है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर का वीर्य तत्व सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिवर्तित हो जाता है एवं जो तत्व रति (काम, यौन सम्बन्ध) बनाने के समय प्रयुक्त होता है जितेंद्रिय होने पर वही तत्व प्राण, मन और शरीर की शक्तियों को पोषण देने वाले एक दूसरे ही रूप में परिवर्तित होकर ज्ञानेन्द्रियो को ऊर्जावान बनाते है। परन्तु इस पृथ्वीलोक में उपस्थित मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियो की ऊर्जा का सम्बल धीरे धीरे कम होने लगता है तो वह ऊर्जा ब्रह्मांड में उपस्थित अपने स्वभाव के अनुकूल अन्य ऊर्जा की ओर आकर्षित होने लगती है, चूंकि मनुष्य के शरीर मे दस ज्ञानेन्द्रियाँ है तो दस प्रकार की ऊर्जा तरंगे आकर्षित होती है एवं शरीर मे किसी एक स्थान पर समूह ऊर्जा के रूप में एकत्र होती है, जिसे आत्मा कहा जाता है, और मस्तिष्क में संचित पूर्व ऊर्जा तरंगे पुनः जागृत हो चलायमान होती है और मष्तिष्क में पुनः उसी बिंदु पर स्पर्श करती है जिससे मनुष्य को पुनः अपने उस समय काल मे किये गए कर्मो का बोध होता है, अब यदि उसके कर्म अनैतिक हुए तो उसे पीड़ा होगी, भय के मारे प्यास लगेगी परन्तु ज्ञानेन्द्रियो के निरंतर निष्क्रिय होते रहने की वजह से मृतशैय्या पर पड़ा वह व्यक्ति सिर्फ घुट कर कष्ट भोगता है किसी से अपनी पीड़ा को व्यक्त नही कर पाता सिर्फ एक असहाय की भांति सम्पूर्ण ऊर्जाओं के एक स्थान पर एकत्र होने तक प्रतीक्षा करता है, जैसे ही सम्पूर्ण ऊर्जा शरीर मे एक जगह एकत्र हो जाती है तो वह मनुष्य के शरीर को छोड़कर आत्मा के रूप में ब्रम्हांड में संचरित ऊर्जाओं की ओर गतिमान हो जाती है । और ब्रम्हांड में विचरण करते हुए जब पुनः अपने अनुकूल ऊर्जा मार्ग का पथ प्राप्त करना है तो उस ओर एक नई रूपरेखा में प्रखर होकर सजीव हो उठती है, इस कथन को विज्ञान भी स्पष्ट कर चुका है कि – ”ऊर्जा को न तो नष्ट किया जा सकता है न ही उत्पन्न किया जा सकता है इसे सिर्फ एक रूप से दूसरे रूप में ढाला जा सकता है।”
यहां पर दो प्रकार की आत्मीय ऊर्जाएं शरीर से मुक्त होती है एक वो ऊर्जा जो प्रबल ज्ञानेन्द्रियो से अभिभूत अति तेज को धारण किये हुए स्वयं मनुष्य के शरीर का परित्याग करे, ऐसी आत्मीय ऊर्जाएं स्वतः जन्म लेने के लिए स्वतंत्र होती है और द्वितीय जो ज्ञानेन्द्रियो के क्षीण हो जाने से अन्य प्रबल ऊर्जा शक्तियों की तरफ आकर्षित होकर शरीर का परित्याग करे ये आत्मीय ऊर्जाएं पुनः ग्रह नक्षत्रों के गुरुत्वाकर्षण बल के अनुकूल गति करते हुए उचित समय पर पृथ्वी पर आगमन हेतु प्रतिबद्ध होते है और जन्म लेते है ।
अब इस अंतिम लाइन के अर्थ को ऊपर की लाइन से जोड़कर पढ़ लिजिए यही जीवन मृत्यु का चक्र है जिसे प्रत्येक व्यक्ति जीता है।
सब कुछ यहां पर व्यक्त कर पाना तो सम्भव नही फिर भी कम शब्दों में मैं अपनी कलम भाव से स्पष्ट करने का प्रयास किया एवं पढ़कर हमे अनुग्रहित करे, एवं मृत्यु से भयभीत न हो इसे हर शख्स को जीना है ।
– अम्बरीष पुनर्नवा ‘ज्योतिषी’